नई दिल्ली। 15 अगस्त यानी आजादी की सालगिरह के मौके पर आईबीएन अपनी खास पेशकश ‘जागा भारत’ के जरिए रोशनी डाल रहा है उन तमाम आंदोलनों पर जब आम भारतीयों ने आंदोलन की कमान अपने हाथ में ली और देश में बड़ा बदलाव आया। इसी कड़ी में इस बार बात हुई दलित आंदोलन की।
12 नवंबर 1930। गांधी जी के नागरिक अवज्ञा आंदोलन से घबराई अंग्रेज सरकार ने लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया। लेकिन इस सम्मेलन में शामिल एक युवा बैरिस्टर ने गांधी जी को पूरे भारत का नेता मानने से इंकार कर दिया। उनका नाम था डॉ. बी.आर. अंबेडकर। उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस के ज्यादातर नेता भी ऊंच-नीच में विश्वास रखते हैं। वे दलितों को संवैधानिक प्रक्रिया में भाग नहीं लेने देंगे इसलिए जरूरी कि ऐसे पृथक निर्वाचक मंडल बनाए जाएं जहां दलित उम्मीदवार हों और जिन्हें सिर्फ दलित चुनें।
14 अप्रैल 1891 को महू में एक दलित परिवार में जन्मे अंबेडकर का शुरुआती जीवन काफी कष्ट से गुजरा था। लेकिन अपनी मेहनत और कोल्हापुर के छत्रपति शाहू जी महाराज के सहयोग से वे कोलंबिया विश्वविद्यालय से बैरिस्टर की डिग्री लेकर लौटे थे। 1923 में भारत लौटने के बाद उन्होंने समतामूलक समाज बनाने को जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन्होंने दलितों के मंदिर प्रवेश और सार्वजनिक तालाबों से पानी लेने के अधिकार को लेकर आंदोलन चलाया। देखते-देखते उनकी शोहरत राष्ट्रीय स्तर पर फैल गई।
16 अगस्त 1942 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मेकडॉनल्ड ने कम्युनल अवार्ड यानी सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी। इसके तहत दलितों को हिंदुओं से अलग मानकर अलग निर्वाचन मंडल का प्रावधान किया गया था। गांधी जी तब पूना की जेल में थे। ये घोषणा उन्हें दलितों को हिंदुओं से अलग करने का सरकारी षड्यंत्र लगा।
20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने कम्युनल अवॉर्ड के खिलाफ आमरण अनशन शुरू कर दिया। देश भर में हाहाकार मच गया। डॉ. अंबेडकर से गांधी जी की जान बचाने की गुहार लगाई गई। हर तरफ से पड़ रहे दबाव को देखते हुए डॉ. अंबेडकर समझौते के लिए राजी हुए। लेकिन शर्त थी कि दलितों को हर स्तर पर आरक्षण दिया जाए। गांधी जी मान गए। 26 दिसंबर को उन्होंने अनशन तोड़ दिया। इस पूना पैक्ट ने दलितों की सूरत बदलने में क्रांतिकारी भूमिका अदा की।
डॉ. अंबेडकर से पहले 9वीं सदी के आखिरी दौर में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले जैसे समाजसुधारक गुलामगीरी जैसी किताब लिखकर ब्राह्मणवादी कर्मकांडों पर कड़ा प्रहार कर चुके थे। उधर, दक्षिण में नारायाणा गुरु और पेरियार भी वर्णव्यवस्था के खिलाफ बिगुल बजा रहे थे। डॉ. अंबेडकर के महत्व को समझते हुए उन्हें देश का संविधान लिखने की जिम्मेदारी सौंपी गई। वे देश के पहले कानून मंत्री भी बनाए गए। लेकिन डॉ. अंबेडकर को समझ में आ गया था कि हिंदू रहते हुए दलितों की मुक्ति नहीं। इसलिए 14 अक्टूबर 1956 को, अपनी मृत्यु के लगभग दो महीने पहले उन्होंने लाखों समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली।
डॉ. अंबेडकर के विचार, आजादी के हर बढ़ते साल के साथ ज्यादा प्रासंगिक होते गए। ये उनके मिशन का ही नतीजा है कि जिस उत्तर प्रदेश में दलितों को ऊंची जाति वालों के सामने बैठने की इजाजत नहीं थी, वहां एक दलित की बेटी यानी मायावती मुख्यमंत्री बन सकीं, वो भी पूर्ण बहुमत के साथ। हालांकि डॉ. अंबेडकर के मिशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर बार-बार सवाल उठते हैं।
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