अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के छात्र अनिल कुमार मीणा की मौत ने यह साबित कर दिया है कि भारतीय शिक्षण संस्थानों सहित इस व्यवस्था में दलित-आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक भेदभाव जस का तस हावी है. पहले वर्ष के छात्र अनिल मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में अनुसूचित जनजाति वर्ग में टॉपर थे. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उनमें प्रतिभा की कमी थी. हिसार के इंजीनियरिंग का छात्र प्रमोद कुमार भी प्रतिभावान था, लेकिन वह पिछड़ी जाति से था. पढ़ने में अव्वल प्रमोद की उच्च जाति के उसके सहपाठियों ने इसलिए गोली मारकर हत्या कर दी क्योंकि वह अपनी कक्षा में पढ़ने में उनसे काफी तेज था.
शिक्षा के क्षेत्र में विकास और बराबरी के तमाम दावों के बावजूद हर साल ऐसी घटनाएं हो रही हैं. साल 2007 के बाद से शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव के कारण करीब 19 मौतें दर्ज की जा चुकी है. एक तरफ सरकार और सत्ता भेदभाव को खत्म करने के उपाय सुझाती हैं और दूसरी तरफ जाति के आधार पर नफरत करने वाले भेदभाव और वंचना के नए-नए हथकंडे विकसित कर लेते हैं. वंचित तबकों से आने वाले छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षण संस्थानों में बारीक स्तर पर प्रताड़ित और हतोत्साहित किया जा रहा है. साथ ही ऐसे वर्गो से आने वालों को रोकने के लिए नए-नए हथकंडे भी अपनाए जा रहे हैं. ऐसे छुपे हथकंडे जो कि ठीक-ठीक दिखे भी न और वंचितों को वंचित भी कर दें.
मसलन, इस वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) जैसे ज्यादातर शिक्षण संस्थानों और संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) जैसी प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित कराने वाली ईकाइयों ने प्रवेश या परीक्षा के फार्म भरने की प्रक्रिया ऑनलाइन कर दी है. ऐसे तो कहें कि यह तकनीक प्रक्रिया को और आसान बनाने के लिए है. लेकिन सिर्फ उन्हीं तबकों के लड़के-लड़कियों के लिए जो कम्प्यूटर और इंटरनेट से परिचित हैं. सच्चाई ये है कि कम्प्यूटर और इंटरनेट के आम चलन के बावजूद बहुत से लड़के-लड़कियां इसकी पहुंच से दूर हैं. ऐसे में या तो वो साइबर कैफे में 300 रुपये देकर फार्म भर रहे हैं या फिर साइबर कैफे न हो तो चाहते हुए भी वे वंचित रह जाते हैं. ये कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से वंचित होने वालों में दलित-पिछड़े तबके के विद्यार्थी ज्यादा होंगे. यह वंचित करने का ऐसा तरीका है, जो किसी कानून की पकड़ से बाहर है. यह तरीका ऐसे छात्रों को प्रवेश प्रक्रिया में शामिल होने से पहले ही छांट देता है. जो थोड़ी बहुत कोशिश के बाद प्रक्रिया में शामिल भी हो जाते हैं वो फिर प्रश्नपत्रों के अंग्रेजी में पूछे जाने या पढ़ाई-लिखाई का माध्यम अंग्रेजी होने से वंचित हो जाते हैं.
वंचित तबकों से आने वाले छात्रों का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हो जाता. उन्हें पूरे सत्र के दौरान कई छुपे तरीकों से वंचना झेलनी पड़ती है. जैसे कि यह आम चलन में आ गया है कि प्रायोगिक परीक्षाओं में दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले छात्र-छात्राओं को या तो फेल कर दिया जाता है या फिर कम नंबर दिया जाता है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में भी ये आम बात हो गई है. पिछले दिनों यहां आंतरिक मूल्यांकन या मौखिक परीक्षा में कुछ विषयों में उन छात्र-छात्राओं को फेल कर दिया गया जो पिछड़ी जाति या दलित वर्ग से आते थे. इस संस्थान का यह मनमानापन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के भी खिलाफ है. कोर्ट ने अपने एक आदेश में यह सख्त निर्देश दे रखा है कि मौखिक परीक्षाएं या व्यक्तिगत साक्षात्कार के अंक कुल अंक के 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होने चाहिए. जेएनयू के मुनवादियों ने वंचना का ये अपना तरीका विकसित कर लिया है.
दलितों से भेदभाव के तरीके संस्थान दर संस्थान अलग-अलग हो सकते हैं, जैसा कि एम्स में बरसों से हो रहा है. यहां दलित-पिछड़ा विरोधी अस्पताल प्रशासन खुलेआम भेदभाव करता आ रहा है. इस संस्थान में दलित छात्रों को एक हास्टल में सिमटा दिया गया है. कदम-कदम पर उनके साथ बारीक स्तर पर भेदभाव होता है, जिसे वास्तव में साबित कर पाना उतना ही कठिन है, जितना की उसे सहन कर पाना. लखनऊ के छत्रपति शाहू जी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में भी दलित छात्रों को एक ही विषय में लगातार कई सालों से फेल किए जाने की घटना सामने आ चुकी है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था ने संविधान का हवाला देते हुए दलित-पिछड़े छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में विशेष अवसर तो दिया, लेकिन दलित विरोधी मानसिकता को खत्म नहीं कर सका. दरअसल, इस तरह की मानसिकता कई स्तरों पर काम करती है. आप ये कानून बना सकते हैं कि दलित और आदिवासियों के साथ जातिगत आधार पर भेदभाव या अपमान गैरजमानती अपराध हो सकता है, लेकिन इस मामले में आरोपी को तभी सजा दिला सकते हैं जब जुर्म साबित हो. इस वर्चस्ववादी समाज में कमजोर के लिए गवाहों का जुटना या उसके लिए जुर्म को प्रमाणित करने के साक्ष्य जुटाना अत्यंत मुश्किल है. जो अपमान आज इस वर्ग के छात्र-छात्राएं झेल रहे हैं, उसे साबित कर पाना असंभव जैसा है. इन छात्रों पर अक्सर ये आरोप लगा दिया जाता है कि ये छात्र अंग्रेजी नहीं जानने के कारण पिछड़ जाते हैं और फेल हो जाते हैं. इस देश ने अपनी भाषा में शिक्षा के लिए कोई ढांचा ही नहीं विकसित किया है. प्रवेश में विशेष अवसर देने का कानून तो बना दिया गया है, लेकिन पढ़ाई की भाषा क्या होगी इसे लेकर कोई कानून नहीं बना है. कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसमें अलग-अलग वर्गो से आने वाले छात्र-छात्राओं को समान शिक्षा का स्तर दे. शिक्षा के बेतहाशा निजीकरण ने समान शिक्षा के सिद्धांत को खारिज कर दिया है.
साभारः हस्तक्षेप
शिक्षा के क्षेत्र में विकास और बराबरी के तमाम दावों के बावजूद हर साल ऐसी घटनाएं हो रही हैं. साल 2007 के बाद से शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव के कारण करीब 19 मौतें दर्ज की जा चुकी है. एक तरफ सरकार और सत्ता भेदभाव को खत्म करने के उपाय सुझाती हैं और दूसरी तरफ जाति के आधार पर नफरत करने वाले भेदभाव और वंचना के नए-नए हथकंडे विकसित कर लेते हैं. वंचित तबकों से आने वाले छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षण संस्थानों में बारीक स्तर पर प्रताड़ित और हतोत्साहित किया जा रहा है. साथ ही ऐसे वर्गो से आने वालों को रोकने के लिए नए-नए हथकंडे भी अपनाए जा रहे हैं. ऐसे छुपे हथकंडे जो कि ठीक-ठीक दिखे भी न और वंचितों को वंचित भी कर दें.
मसलन, इस वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) जैसे ज्यादातर शिक्षण संस्थानों और संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) जैसी प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित कराने वाली ईकाइयों ने प्रवेश या परीक्षा के फार्म भरने की प्रक्रिया ऑनलाइन कर दी है. ऐसे तो कहें कि यह तकनीक प्रक्रिया को और आसान बनाने के लिए है. लेकिन सिर्फ उन्हीं तबकों के लड़के-लड़कियों के लिए जो कम्प्यूटर और इंटरनेट से परिचित हैं. सच्चाई ये है कि कम्प्यूटर और इंटरनेट के आम चलन के बावजूद बहुत से लड़के-लड़कियां इसकी पहुंच से दूर हैं. ऐसे में या तो वो साइबर कैफे में 300 रुपये देकर फार्म भर रहे हैं या फिर साइबर कैफे न हो तो चाहते हुए भी वे वंचित रह जाते हैं. ये कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से वंचित होने वालों में दलित-पिछड़े तबके के विद्यार्थी ज्यादा होंगे. यह वंचित करने का ऐसा तरीका है, जो किसी कानून की पकड़ से बाहर है. यह तरीका ऐसे छात्रों को प्रवेश प्रक्रिया में शामिल होने से पहले ही छांट देता है. जो थोड़ी बहुत कोशिश के बाद प्रक्रिया में शामिल भी हो जाते हैं वो फिर प्रश्नपत्रों के अंग्रेजी में पूछे जाने या पढ़ाई-लिखाई का माध्यम अंग्रेजी होने से वंचित हो जाते हैं.
वंचित तबकों से आने वाले छात्रों का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हो जाता. उन्हें पूरे सत्र के दौरान कई छुपे तरीकों से वंचना झेलनी पड़ती है. जैसे कि यह आम चलन में आ गया है कि प्रायोगिक परीक्षाओं में दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले छात्र-छात्राओं को या तो फेल कर दिया जाता है या फिर कम नंबर दिया जाता है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में भी ये आम बात हो गई है. पिछले दिनों यहां आंतरिक मूल्यांकन या मौखिक परीक्षा में कुछ विषयों में उन छात्र-छात्राओं को फेल कर दिया गया जो पिछड़ी जाति या दलित वर्ग से आते थे. इस संस्थान का यह मनमानापन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के भी खिलाफ है. कोर्ट ने अपने एक आदेश में यह सख्त निर्देश दे रखा है कि मौखिक परीक्षाएं या व्यक्तिगत साक्षात्कार के अंक कुल अंक के 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होने चाहिए. जेएनयू के मुनवादियों ने वंचना का ये अपना तरीका विकसित कर लिया है.
दलितों से भेदभाव के तरीके संस्थान दर संस्थान अलग-अलग हो सकते हैं, जैसा कि एम्स में बरसों से हो रहा है. यहां दलित-पिछड़ा विरोधी अस्पताल प्रशासन खुलेआम भेदभाव करता आ रहा है. इस संस्थान में दलित छात्रों को एक हास्टल में सिमटा दिया गया है. कदम-कदम पर उनके साथ बारीक स्तर पर भेदभाव होता है, जिसे वास्तव में साबित कर पाना उतना ही कठिन है, जितना की उसे सहन कर पाना. लखनऊ के छत्रपति शाहू जी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में भी दलित छात्रों को एक ही विषय में लगातार कई सालों से फेल किए जाने की घटना सामने आ चुकी है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था ने संविधान का हवाला देते हुए दलित-पिछड़े छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में विशेष अवसर तो दिया, लेकिन दलित विरोधी मानसिकता को खत्म नहीं कर सका. दरअसल, इस तरह की मानसिकता कई स्तरों पर काम करती है. आप ये कानून बना सकते हैं कि दलित और आदिवासियों के साथ जातिगत आधार पर भेदभाव या अपमान गैरजमानती अपराध हो सकता है, लेकिन इस मामले में आरोपी को तभी सजा दिला सकते हैं जब जुर्म साबित हो. इस वर्चस्ववादी समाज में कमजोर के लिए गवाहों का जुटना या उसके लिए जुर्म को प्रमाणित करने के साक्ष्य जुटाना अत्यंत मुश्किल है. जो अपमान आज इस वर्ग के छात्र-छात्राएं झेल रहे हैं, उसे साबित कर पाना असंभव जैसा है. इन छात्रों पर अक्सर ये आरोप लगा दिया जाता है कि ये छात्र अंग्रेजी नहीं जानने के कारण पिछड़ जाते हैं और फेल हो जाते हैं. इस देश ने अपनी भाषा में शिक्षा के लिए कोई ढांचा ही नहीं विकसित किया है. प्रवेश में विशेष अवसर देने का कानून तो बना दिया गया है, लेकिन पढ़ाई की भाषा क्या होगी इसे लेकर कोई कानून नहीं बना है. कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसमें अलग-अलग वर्गो से आने वाले छात्र-छात्राओं को समान शिक्षा का स्तर दे. शिक्षा के बेतहाशा निजीकरण ने समान शिक्षा के सिद्धांत को खारिज कर दिया है.
साभारः हस्तक्षेप
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