21वीं सदी में जात-पात
हाल ही में उड़ीसा के गंजाम जिले के धुरुबुरई गांव में उच्च जातियों ने धोबी समुदाय के परिवारों पर डेढ़ लाख रुपए का जुर्माना लगाया है। उनका दोष महज इतना है कि उन्होंने साल भर तक कपड़े धोने के लिए प्रति व्यक्ति 50 रुपए की मांग की थी। इससे पहले इस काम के उन्हें केवल 20 रुपए ही मिलते थे। इन दलितों को केवल जुर्माना लगाकर ही नहीं छोड़ा गया। इन्हें इस साल अपनी फसल काटने नहीं दी गई और बार-बार इन पर हमले किए जाते रहे। तथाकथित उच्च जातियों का तथाकथित निम्न जातियों पर अत्याचार का यह अकेला मामला नहीं है। पिछले कई सालों से पुरी जिले के नाई समुदाय के लोग अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए नामचारे पर तथाकथित उच्च जातियों के बाल काटने और पैर धोने से इनकार कर रहे हैं। तमिलनाडु के शिवगंगा जिले में भारत के 60वें गणतंत्र दिवस पर एक तिरंगा फहराने का प्रयास कर रही एक दलित महिला सरपंच को चाकू घोंप दिया गया। पीड़िता ने बताया कि हमलावर स्थानीय निकाय का एक कर्मचारी है, जो ध्वजारोहण के समय ग्रामसभा की अध्यक्षता करने पर उसके खिलाफ नारेबाजी कर रहा था। औद्योगिक शहर कोयंबटूर के दिल में तथाकथित उच्च जाति के हिंदुओं ने दलितों को सड़क का इस्तेमाल न करने देने के लिए इस पर दीवार
बना दी थी। यह दीवार 30 जनवरी, 2010 को तोड़ी गई।
एक ऐसे ही मामले में मई 2008 को मदुराई के उथमपुरम गांव में एक दीवार तोड़ी गई थी। केवल साधारण परिस्थितियों में ही नहीं, तथाकथित उच्च जातियां संकट में फंसी होने पर भी दलितों को बहिष्कृत करना पसंद करती हैं। यह गुजरात के भूकंप और दक्षिण भारत में सूनामी के दौरान देखने को मिला। दोनों मामलों में राहत सामग्री के वितरण में दलितों को वंचित रखा गया। इसके अलावा, उच्च जातियों ने ऐसी कालोनियों का विरोध किया जिनमें दलितों समेत मिलीजुली जातियों के घर हैं। यह तो एक बानगी भर है। देश के कोने-कोने में दलितों को इस प्रकार के अत्याचार, बहिष्करण और भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है। दलितों की कठिन सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दशा के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक अवस्था 2010 पर रिपोर्ट में यह रेखांकित किया गया है कि दलित बड़ी दयनीय स्थितियों में रह रहे हैं। सामाजिक संकेतकों, जैसे बाल मृत्यु दल, उपभोग व्यय, साक्षरता और गरीबी में वे सामान्य जातियों से काफी पिछड़े हुए हैं और अति बहिष्करण का शिकार हैं। समाज के कुछ बौद्धिक और सजग प्रहरियों का तर्क है कि जातिवाद और जाति चेतना अतीत की बात है या फिर यह ग्रामीण समाज की अवधारणा है। हालांकि, सच्चाई यह है कि जाति व जातिवाद इतिहास का अनुभव नहीं है। न ही यह ग्रामीण अवधारणा मात्र है। शहरों में भी जाति प्रथा जिंदा है। अगर आपको इस पर विश्वास न हो तो इंटरनेट पर विवाह वेबसाइटों को खोलकर देख लीजिए। यहां आपको जाति, उप-जाति और उप-उप-जाति के वर-वधु की तलाश करते लोग मिलेंगे।
आइए, शहरी भारत में जाति पर नजर डालें। अन्य उच्च जाति 19, ब्राह्मण 9, अन्य पिछड़ी जाति 16, दलित 9, वैश्य 5, क्षत्रीय 4, अति पिछड़ी जाति 2- वर्ण और जाति के साथ यह संख्या कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के मंत्रिमंडल के सदस्यों की है। यह जानकारी एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुई है। इसके अलावा पहली दलित महिला के स्पीकर बनने की खबर भी पहले पेज की सुर्खियों में रही है। इसी प्रकार विदेश में शिक्षित और एक राजनीतिक परिवार की चौथी पीढ़ी के सदस्य दलित परिवार में मीडिया के सामने खाना खाते हैं और इसे प्रचारित करवाते हैं। दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष भी यही दोहराते हैं।
मूल प्रश्न यह है कि मीडिया और राजनेता एक वर्ग विशेष की जाति को रेखांकित करके क्या संदेश देना चाहते हैं? अगर लोगों में जातिगत चेतना नहीं है तो लोग भारतीय समाज के कुछ वर्र्गो की जाति की पृष्ठभूमि को क्यों जानने को आतुर रहते हैं। चैनलों के कैमरे के सामने इस प्रकार दलित के साथ भोजन करके ये राजनेता यही कहना चाहते हैं कि देखो, दलित हमसे कितने निम्न कोटि के हैं, फिर भी हम इनके साथ भोजन करके इन्हें उपकृत कर रहे हैं। दलितों के खिलाफ भेदभाव व बहिष्करण का एकमात्र कारण तथाकथित ऊंची जातियों की जातिवादी सोच है। यही वर्ग पंचायत से संसद तक निर्णायक भूमिका निभाता है।
[विवेक कुमार: लेखक जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर हैं]
Reference: Jagran
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